नैनीताल
उच्च न्यायालय को नैनीताल से अन्यत्र शिफ्ट करने का निर्णय वापस लिया जाय
सीएन, नैनीताल। उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका की सुनवाई के क्रम में मौखिक रूप से हाईकोर्ट के लिये गौलापार, हल्द्वानी को अनुपयुक्त बतलाते हुए इसे आई.डी.पी.एल., ऋषिकेश ले जाने के पक्ष में वरिष्ठ नागरिकों ने विचार व्यक्त किया। बाद में अपने लिखित आदेश में न्यायालय ने हाईकोर्ट के लिये नैनीताल को भी अनुपयुक्त घोषित कर दिया और नये स्थान के लिये एक तरह के ‘जनमत संग्रह’ करने का आदेश दिया। इस बारे में प्रदेश सरकार से भी आख्या माँगी गई है। न्यायालय के इस आदेश से हम लोग स्तब्ध हैं और इस निर्णय को वापस लेने का अनुरोध करते हैं। 21 वर्ष पूर्व 2003 में भी हम लोग एक आदेश से ऐसे ही आहत हुए थे, जब हाईकोर्ट ने मुजफ्फरनगर नगर के जघन्य कांड के एक आरोपी अनन्त कुमार सिंह को दोषमुक्त करार दिया था। उस वक्त समस्त राज्य आन्दोलनकारियों ने मिल कर इस आदेश का जबर्दस्त विरोध किया था और अदालत ने भी अपना निर्णय वापस ले लिया था। हमें उम्मीद है कि इस बार भी माननीय उच्च न्यायालय उत्तराखंड की जनता की भावनाओं का सम्मान करेगी। उत्तराखंड राज्य का जन्म एक लम्बे जन संघर्ष के बाद हुआ था, जिसमें 40 से अधिक लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी और सत्ता का मुजफ्फरनगर कांड जैसा आक्रमण झेला था। इसके बावजूद जनता अपना अधिकार लेने में सफल हुई। उस आन्दोलन के दौरान ही जनता ने यह तय किया था कि उत्तराखंड राज्य की राजधानी गैरसैंण होगी। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव द्वारा गठित रमाशंकर कौशिक समिति ने भी उत्तराखंड भर में विस्तृत सर्वेक्षण कर जनता की इस माँग पर मुहर लगायी थी। लेकिन राज्य बनने के बाद न तो गैरसैंण राजधानी बन सकी और न ही वहाँ उच्च न्यायालय स्थापित हो सका। देहरादून तो अभी भी अस्थायी राजधानी है और प्रदेश की सत्ता में आयी हर सरकार राजधानी गैरसैंण ले जाने का आश्वासन देती है। हालाँकि एक विधानसभा भवन बनने के अतिरिक्त राजधानी बनने की दिशा में वहाँ कोई प्रगति अब तक नहीं हो पायी है। किन्तु हाईकोर्ट को यदि नैनीताल से हटा कर कहीं अन्यत्र ले जाना है तो गैरसैंण ले जाना चाहिये। यह उत्तराखंड की मूल भावना के अनुरूप होगा। उच्च न्यायालय का यह निर्णय बगैर किसी गहन विचार-विमर्श के, सिर्फ अपनी मनमर्जी के आधार पर लिया गया लगता है। न्यायालय ने अपने इस फैसले में बहुत सी ऐसी बातें कहीं हैं, जो या तो उसके अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करती हैं या फिर परस्पर विरोधाभासी हैं। प्रदेश सरकार के स्तर पर उच्च न्यायालय के विस्तार के लिये एक प्रक्रिया चल ही रही है। सरकार ने अपनी कैबिनेट बैठक में इस बारे में निर्णय लिया है और उस निर्णय को कार्यान्वित करने की दिशा में प्रयत्नशील है। ऐसे में माननीय न्यायालय का इस बारे में निर्णय देना विधायिका के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण ही माना जायेगा। हाईकोर्ट ने सर्वोच्च न्यायालय का उल्लेख कर हल्द्वानी में प्रस्तावित हाईकोर्ट की भूमि के अधिकांश भूभाग पर वृक्ष होने पर चिन्ता व्यक्त की है, विशेषकर हाल के दिनों में प्रदेश के जंगलों में व्यापक रूप से लगी आग के सन्दर्भ में। यह चिन्ता सराहनीय है, मगर यह ध्यान देने की बात है कि विकास कार्यों के लिये पेड़ों का कटान होता ही है और उसके लिये प्रतिपूरक वृक्षारोपण की व्यवस्था है। जब वृक्षों का अनावश्यक कटान हो तो सबसे पहले जनता ही आपत्ति उठाती है। मगर जहाँ जनता विरोध करती है, वहाँ विकास के नाम पर जबर्दस्ती भारी संख्या में दुर्लभ प्रजातियों के ऐसे पेड़ काट दिये जाते हैं, जिनका विकल्प सम्भव ही नहीं है। चार धाम के लिये बन रही ऑल वैदर रोड इसका एक ज्वलन्त उदाहरण है, जिसका वहाँ के लोगों ने लगातार विरोध किया, मगर इसके बन जाने के बाद लगातार प्रकृति से छेड़छाड़ का खामियाजा भुगत रहे हैं। इसकी तुलना में तराई भाबर के जंगल उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं। यदि शासन-प्रशासन में इच्छा शक्ति हो तो प्रतिपूरक वृक्षारोपण से कहीं भी वैसा जंगल तैयार किया जा सकता है। यह बात समझ से परे है कि यदि माननीय न्यायालय ने हाईकोर्ट स्थानान्तरित करने का मन बना ही लिया है तो फिर एक पोर्टल बना कर अधिवक्ताओं और आम जनता की राय माँगने का क्या अर्थ रह जाता है ? जनता की राय यदि हाईकोर्ट के नैनीताल में ही बने रहने के पक्ष में आता है तो क्या अदालत का फैसला स्वतः ही निरस्त हो जायेगा ? वैसे भी उत्तराखंड की जनता तीस वर्ष पहले, वर्ष 1994 में ही कौशिक समिति के सामने अपनी राय रख चुकी है, जिसका सम्मान उच्च न्यायालय को करना चाहिये और हाईकोर्ट को गैरसैंण ले जाने का फैसला करना चाहिये।
न्यायालय ने कोर्ट को हटाने के लिये नैनीताल नगर में सुविधाओं के अभाव का भी तर्क दिया है। विशेष रूप से उसने पर्यटन की समस्या, ट्रैफिक, कनेक्टिविटी और स्वास्थ्य सुविधाओं का जिक्र किया है। सच्चाई यह है कि पहाड़ के बाकी हिस्सों की तुलना में नैनीताल में बहुत अधिक सुविधायें हैं और अगर नहीं हैं तो न्यायालय का नैतिक दायित्व है कि इन सुविधाओं के निर्माण के लिये अपनी शक्तियों का उपयोग करे। न्यायालय यदि ऐसा करेगा तो वादकारियों का ही नहीं, नैनीताल और उस समस्त पर्वतीय क्षेत्र का भला होगा, जिसके लिये उत्तराखण्ड राज्य की स्थापना की गई थी। वादकारी अन्ततः सामान्य नागरिक ही होता है। सामान्य नागरिक के लिये सुविधायें बढ़ने पर वादकारी स्वतः ही लाभान्वित होगा। पर्वतीय क्षेत्रों में सुविधायें पैदा करने की जरूरत है न कि सुविधाओं के नाम पर पहाड़ों में मौजूद संस्थाओं, कार्यालयों को पहाड़ से उठा कर मैदानी क्षेत्रों में ले जाने की। ऐसा करने से एक पर्वतीय राज्य के रूप में उत्तराखंड की जरूरत पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है। यह कहना भी सही नहीं है कि नैनीताल कनेक्टिविटी की दृष्टि से कमजोर है। वस्तुतः नैनीताल सबसे आसान पहुँच वाला पर्यटक स्थल है और इसी कारण लोकप्रिय भी है। मगर अंधाधुंध ट्रैफिक के चलते यहाँ पहुँचने में कई बार जरूरत से ज्यादा विलम्ब हो जाता है। मगर चाहे अनियंत्रित ट्रैफिक का मामला हो, पर्यटकों की भीड़ का मामला हो, स्वास्थ्य का या शिक्षा सुविधा का, माननीय उच्च न्यायालय को अपनी प्रबल शक्तियों का उपयोग कर प्रदेश सरकार को इन परिस्थितियों को ठीक करने के लिये विवश करना चाहिये। हाईकोर्ट को स्थानान्तरित करना समस्या का समाधान नहीं है। नैनीताल में अधिवक्ताओं और वादकारियों के लिये आवास तथा महंगाई का जिक्र माननीय न्यायालय ने अपने आदेश में किया है और भविष्य में इसके और विकट होने की सम्भावना जताई है। कुछ हद तक यह आशंका सही हो सकती है। मगर न्यायालय को यह ध्यान देना चाहिये कि भारत का सर्वोच्च न्यायालय और मौजूदा मुख्य न्यायाधीश न्यायपालिका को लगातार पेपरलैस और वर्चुअल व्यवस्था की ओर ले जा रहे हैं। इस बात का जिक्र माननीय उच्च न्यायालय ने अपने उपरोक्त निर्णय में भी किया है। यदि इस दिशा में हम तेजी से बढ़ सकें तो न तो अधिवक्ताओं को और न ही वादकारियों को सशरीर न्यायालय में उपस्थित होना होगा और न नैनीताल आने की जरूरत पड़ेगी। इससे आगामी समय में अदालती काम के लिये नैनीताल में भीड़ बढ़ने के बदले कम ही होगी। वादकारियों और अधिवक्ताओं के समय और श्रम की बचत होगी। खर्चा भी कम होगा। उत्तराखंड उच्च न्यायालय पेपरलैस और वर्चुअल व्यवस्था में तेजी से काम कर पूरे देश के लिये एक उदाहरण प्रस्तुत कर सकता है।
हम विधिसम्मत रूप से उत्तराखंड उच्च न्यायालय के सामने रिव्यू पैटिशन के रूप में न्यायालय को नैनीताल से अन्यत्र शिफ्ट करने का निर्णय वापस लेने का निवेदन करने जा रहे हैं और हमें आशा है कि माननीय उच्च न्यायालय हमारे इस निवेदन को स्वीकार करेगा। बैठक में प्रो. अजय रावत,
राजीव लोचन साह, शेखर पाठक, अनूप साह, ज़हूर आलम, पी. सी. तिवारी, शीला रजवार व डी. के. जोशी सहित अनेक लोग मौजूद थे।