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पर्यावरण

गिद्ध होते तो नहीं होती हर साल एक लाख भारतीयों की मौत

गिद्ध होते तो नहीं होती हर साल एक लाख भारतीयों की मौत
सीएन, नईदिल्ली।
गिद्ध! खतरनाक से दिखने वाले भद्दे पक्षी। इवॉल्यूशन की थिअरी देने वाले महान वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन तक ने इन्हें डिस्गस्टिंग यानी घृणास्पद कह दिया। लेकिन कुदरत ने गिद्धों को जो काम सौंपा है, उसके हिसाब से उनकी बनावट बिलकुल दुरुस्त है। गिद्ध पर्यावरण संतुलन बनाए रखने में अहम भूमिका निभाते हैं, शवों को खाकर। कुदरत का सफाईकर्मी भी कहा जाता है उन्हें। कुछ ही दशक पहले की बात हैए गिद्ध हर जगह नज़र आ जाते। पेड़, बिजली के खंभे और यहां तक कि रिहाइशी इमारतों की छतों पर भी। जानवरों की लाश को झुंड बनाकर खाना या आसमान में गोल चक्कर काटना सबसे बड़ी पहचान थी गिद्धों की। लेकिन, अब उनकी अधिकतर प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं। गिद्ध इंसानों की ग़लती से गायब हुए और इसकी क़ीमत इंसानों को भी चुकानी पड़ रही है। उन्हें जान.माल, दोनों का नुकसान हो रहा। 1990 के दशक तक गिद्धों की आबादी काफी ज़्यादा थी। 1990.91 के एक सर्वे की मानें तो करीब चार करोड़। लेकिन उसके बाद से गिद्ध तेज़ी से गायब होने लगे। साल 2000 तक तो हर कोई कहने लगा कि अब गिद्ध कहीं नज़र ही नहीं आते। सरकार ने स्टडी कराई तो पता चला कि 1990 से 2007 के बीच गिद्धों की कई प्रजातियां करीब 95 फ़ीसदी तक कम हो गईं। अब तो गिद्ध बमुश्किल 60 हज़ार ही बचे हैं। यह इतिहास में किसी भी पक्षी की तादाद इतनी तेज़ी से घटने का पहला मामला है। अमूमन किसी प्रजाति के इस तरह से विनाश की कई वजहें होती हैं। जैसे कि उनका बड़े पैमाने पर शिकार महामारी या फिर उनके कुदरती आवास का नष्ट होना। मृत पशुओं के शरीर में ज़हर लगाकर कुछ देशों में गिद्धों का शिकार होता है। जंगल कटने से उनके लिए रहने का संकट भी पैदा हो रहा था। लेकिन ये सब इतने बड़े कारण नहीं थे कि उनकी आबादी एकाएक इतनी कम हो जाए। आखिर में लगभग एक दर्जन वैज्ञानिकों की इंटरनैशनल टीम ने पाकिस्तान में गिद्धों की लाशों का परीक्षण किया। और फिर पता चला कि गिद्धों की जान ली है, डायक्लोफिनैक ने। यह असल में दर्द और सूजन खत्म करने वाली किफायती दवा थी, जो बनी तो इंसानों के लिए थी, लेकिन मवेशियों के लिए फायदेमंद निकली, तो उन्हें भी दी जाने लगी। गिद्ध जब किसी डायक्लोफिनैक इंजेक्शन लगे जानवर का शव खाते, तो दवा के दुष्प्रभाव से उनके जोड़ों और पंजों में गठिया हो जाता, पेट फूलने लगता और गुर्दे जवाब दे देते। आखिर में वे गश खाकर गिर जाते और उनकी मौत हो जाती। गिद्धों ने जितने शव खाए, उनमें से एक फ़ीसदी से भी कम जानवरों को डायक्लोफिनैक इंजेक्शन लगा था। लेकिन इतने कम शवों ने ही गिद्धों की लगभग 99 प्रतिशत आबादी को ख़त्म कर दिया। गिद्ध शव को झुंड बनाकर खाते थे, इसलिए बीमारी का शिकार भी सामूहिक रूप से हुए। गिद्धों की आबादी कम होने से शव सफाई की प्राकृतिक व्यवस्था बिगड़ गई। जानवरों के शव काफी तेज़ी से सड़ते हैं और उनसे ख़तरनाक किस्म के बैक्टीरिया निकलते हैं। ये हवा और पानी को दूषित करके रिहाइशी इलाक़ों में इंसानों और जंगलों में वन्यजीवों को गंभीर रूप बीमार कर सकते हैं। साथ ही, शव वाली मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी कुछ वक़्त के लिए ख़त्म हो जाती है। गिद्धों की कमी से अवारा कुत्तों और चूहे जैसे अवसरवादी सफाईकर्मियों की तादाद तेज़ी से बढ़ी। सिर्फ भारत में करीब 2 करोड़ अवारा कुत्ते हो गए हैं। लेकिन ये शवों की सफाई करने में गिद्धों जितने कुशल नहीं। कुत्ते और चूहे आधा अधूरा मांस खाते हैं और इंसानों के बीच जाकर रेबीज, ऐंथ्रैक्स और प्लेग जैसी बीमारियां फैलाते हैं। वहीं गिद्धों की बात करें तो वो शव को पूरी तरह साफ़ कर देते हैं। उनके पेट में इतना शक्तिशाली एसिड होता है, जो हड्डियों के साथ हैजे और ऐंथ्रैक्स जैसे जीवाणुओं को नष्ट कर देता है। ये जीवाणु इंसानों समेत कई प्रजातियों के लिए जानलेवा हैं। एक गिद्ध सालभर में करीब 120 किलो मांस खा.पचा सकता है। उनके झुंड को एक शव को निपटाने में महज 15 से 20 मिनट लगते हैं। उनका पाचन तंत्र मांस को पचाकर अच्छी खाद बना देता है यानी वे मिट्टी में पोषक तत्व भी छोड़ते हैं। डायक्लोफिनैक वाले दौर से पहले और अब के समय में तुलना करने पर पता चलता है कि जिन ज़िलों में गिद्ध गायब हो गए, वहां इंसानों की मृत्यु दर में इजाफा हुआ है। इयाल जी फ्रैंक और अनंत सुदर्शन के हालिया रिसर्च पेपर के मुताबिक जिन ज़िलों में गिद्ध पहले भारी तादाद में थे, वहां उनके लगभग विलुप्त होने के बाद इंसानों की मृत्यु दर करीब चार फ़ीसदी बढ़ गई। मोटे तौर पर भारत में गिद्धों की कमी के चलते सालाना एक लाख इंसान अधिक मर रहे हैं। इसकी वजह काफी हद तक मवेशियों के सड़े शवों से होने वाली संक्रामक बीमारियां हैं। कुत्ते और चूहे जो बीमारियां ला रहे हैंए उनसे इंसानों की मृत्यु दर तो बढ़ ही रही है, इलाज पर भी बड़ी रकम खर्च करनी पड़ रही है। भारत में हर साल करीब 30 हजार लोग रेबीज से मरते हैं। यह दुनियाभर में रेबीज से होने वाली कुल मौतों का आधे से अधिक है। एक स्टडी के मुताबिक. ऐसी तमाम बीमारियों के इलाज और कुत्तों के टीकाकरण और नसबंदी पर सालाना करीब 17 सौ करोड़ रुपये खर्च होते हैं। अब जानवरों के सड़े शव से होने वाली बीमारियों से बचने के लिए अधिकतर पशुपालक मृत मवेशियों को दफना रहे। लेकिनए इससे बचे हुए गिद्धों के लिए खुराक का संकट पैदा हो रहा। गिद्धों का जोड़ा एक साल में एक ही अंडा देता है। अब अगर वह एक बच्चा भी खुराक की कमी से दम तोड़ देगा, तो उनकी आबादी का फलना.फूलना और भी दुश्वार हो जाएगा। गिद्ध अमूमन जंगलों और ऊंचे पेड़ों पर ही घोंसला बनाते हैं। इनकी अंधाधुंध कटाई से उनका आवास संकट भी बढ़ा रहा। सरकार ने साल 2006 में मवेशियों के इलाज में डायक्लोफिनैक पर प्रतिबंध लगाया। 2018 में इसके निर्माण और इस्तेमाल पर पूरी तरह रोक लगा दी। लेकिन यह सब मर्ज के बेकाबू होने के बाद इलाज शुरू करने जैसा था। और प्रतिबंध के बावजूद भी डायक्लोफिनैक का इस्तेमाल चोरी छिपे होता ही रहा क्योंकि इसके विकल्प वाली दवा महंगी है। साल 2019 में भी गुवाहाटी में मृत मवेशी खाने से 33 गिद्ध मर गए।
साल 2020 में गिद्धों को बचाने के लिए पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने वल्चर एक्शन प्लान 2020.25 भी शुरू किया। इसका मकसद पशुओं के शवों को विषैला बनाने से रोकना है। ड्रग रेगुलेटर को निर्देश है कि वह किसी ऐसी दवा को मंजूरी ना दे, जिससे गिद्धों को नुकसान होने का अंदेशा रहे। साथ ही गिद्धों की आबादी बढ़ाने के उपाय किए जा रहे हैं। कई एनजीओ भी इस दिशा में काम कर रहे। लेकिन जाहिर तौर पर इस तरह के उपायों से गिद्धों के वापस कुदरती सफाईकर्मी की भूमिका में आने में बेहद लंबा वक़्त लगेगा। और तब तक इंसानों को अपने एक प्राकृतिक साथी को विलुप्तप्राय करने की क़ीमत चुकानी पड़ेगी।
नवभारत गोल्ड से साभार 

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