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सखा दाज्यू : नैनीताल के जीवन्त सांस्कृतिक इतिहास का एक अध्याय बंद

उनकी शवयात्रा में भीड़ का आना उनकी बहु आयामी प्रतिभा की जीवंत सखा बनी
सीएन, नैनीताल।
प्रसिद्ध नयना देवी मंदिर के वास्तुकार विशंभर नाथ साह सखा (89) का गुरुवार को निधन हो गया। नैनीताल में लोग उन्हें प्रेम पूर्वक सखा दाज्यू कहकर पुकारते थे। बहुआयामी प्रतिभा के धनी सखा शास्त्रीय संगीत के ज्ञाता होने के साथ ही संस्कृति कर्मी, मूर्तिकार, चित्रकार, फिल्मकार, साहित्य, लोक कला ऐपण के ज्ञाता रहे। बीते बुधवार को स्वास्थ्य में खराबी के कारण उन्हें बीडी पाडे जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया था। यहां से उन्हें हल्द्वानी के निजी अस्पताल ले जाया गया, जहां गुरुवार की दोपहर उन्होंने अंतिम सांस ली। शुक्रवार को उनके कैलाखान स्थित आवास से उनकी शवयात्रा शुरू हुई। उनकी शवयात्रा उनकी शवयात्रा में भीड़ उमड़ना उनकी बहु आयामी प्रतिभा की जीवंत सखा बनी। पाइंस स्थित घाट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया। इसी के साथ पिछले 70 साल से नैनीताल के जीवन्त सांस्कृतिक इतिहास का एक अध्याय बंद हो गया।1933 के बरस नैनीताल में जन्म लेने के बाद से ही विशंभर नाथ साह के बहुआयामी सार्वजनिक जीवन की तैयारी मानो नियती ने स्वयं प्रारम्भ कर दी थी। जब देश तथा नैनीताल में देश की आजादी का आंदोलन जोर पकड़ रहा था तब गांधीजी के प्रभाव से प्रभावित होकर विशंभर नाथ साह शांतिनिकेतन में शिक्षा लेने पहुंचे शांति निकेतन में उनका चित्रकारी का पक्ष खूब निखर कर आया। वहां से पेंटिंग की अगली शिक्षा के लिए उनका चयन जापान के लिए हुआ लेकिन समय ने फिर करवट बदली और वह वापस नैनीताल आ गए। विशंभर नाथ साह के व्यक्तित्व में गजब का विरोधाभास था। उन्होंने शिक्षा तो शांतिनिकेतन में प्राप्त की लेकिन वहां आपके भीतर एक परिपक्व और समर्पित वामपंथी युवक तैयार हुआ। वामपंथ के प्रभाव से वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्ड होल्डर स्थाई सदस्य रहे। लंबे समय तक जन आंदोलनों में भागीदारी भी की. 70 के दशक में गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’, शमशेर सिंह बिष्ट, राजीव लोचन साह आदि के साथ वन आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी की. विशंभर नाथ साह के मुखर व्यक्तित्व ने उन्हें जनता के सवाल और सार्वजनिक जीवन से दूर नहीं होने दिया इसके प्रभाव से ही वह तीन बार कटक पालिका नैनीताल के चुने हुए सदस्य रहे। यह सब विशंभर नाथ साह का बाहरी पक्ष था। विशंभर नाथ साह के भीतर स्थाई रूप से अगर कुछ था तो वह था एक प्रयोग धर्मी चित्रकार और संगीतकार जिसने नैनीताल को शास्त्रीय संगीत की ऊंचाइयों तक पहुंचाने के लिए लगातार प्रयोग किए। विशंभर नाथ साह को घंटों ठुमरी गायन का रियाज तानपुरे पर करते हुए देखा जा सकता था. एक जन्मजात पेंटर कभी उनसे दूर नहीं हुआ, उनकी पेंटिंग के विषय हमेशा आंचलिकता और उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत और परंपराएं पर केन्द्रित रहते थे. बीच के सालों में उन्होंने नैना देवी महोत्सव पर नैना देवी की मूर्तियों का श्रंगार भी किया। अपने जीवन के आखिरी पड़ाव में भी विशंभर नाथ साह पेंटिंग बनाने में मशगूल थे। इन दिनों अपनी अंतिम सांसों के दौरान भी वह खतड़वा की पेंटिंग को अंजाम दे रहे थे। एक प्रयोग धर्मी कलाकार के रूप में विशंभर नाथ साह के दर्जनों किस्से हैं। 1960 के आस-पास जिस दौर में फिल्म बनाना बहुत कठिन काम था उस दौर में भी विशंभर नाथ साह ने अपने दम पर तीन-चार फिल्म का निर्माण किया। उनमें सबसे महत्वपूर्ण फिल्म भारत में चीन के हमले की पृष्ठभूमि में बनाई फिल्म “तवांग से वापसी” है। संगीत और कला के क्षेत्र में ऊंचाइयां प्राप्त करने के बाद भी विशंभर नाथ साह लगातार 60 वर्षों तक नैनीताल के सांस्कृतिक और सामाजिक परिवेश को जीवंत करने के लिए समर्पित रहे। शारदा संघ और राम सेवक सभा के माध्यम से नैनीताल के सांस्कृतिक उत्थान विशेषकर रामलीला और होली महोत्सव को नई ऊंचाइयां प्रदान करने में विशंभर नाथ साह की भूमिका हमेशा अग्रणी रही है। एक समर्पित पेंटर, संगीतकार, हरदम समाज के लिए समर्पित व्यक्ति से भी महत्वपूर्ण पक्ष विशंभर नाथ साह की विनम्रता और उनकी विद्वता थी। नैनीताल के रंगमंच संस्कृति और कला को ऊंचाइयों प्रदान करने में गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ और विशंभर नाथ साह ‘सखा’ जो वर्षो केलाखान नैनीताल के एक ही मकान में रहे का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। उनका जन्म 13 जुलाई 1933 में हुआ। नैनीताल के पाषाण देवी मंदिर के ठीक नीचे स्थित मंदिर व हनुमान मूर्ति निर्माण भी उन्हीं की परिकल्पना रही। हालांकि हनुमान की मूर्ति मूर्तिकार मक्खन ने बनाई। बड़े घरानों के संगीतज्ञों के साथ संगीत साधना के साथ ही वह राजनीति में भी सक्रिय रहे। अच्छे शिकारी होने के साथ ही वह बॉक्सर भी थे। उनकी पुत्री दीपाली दामाद अनुज यूएई में हैं। वर्तमान में बेटी पिता की सेवा के लिए यहीं थी। रंगकर्मी जहूर आलम बताते हैं कि इतनी प्रतिभा एक व्यक्ति में किसी बिरले व्यक्तित्व में ही हो सकती है। राजीव लोचन साह ने कहा कि सखा दाज्यू ने बहुआयामी व्यक्तित्व शब्द को सार्थक किया। कथाकार लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही के उद्गार कुछ इस तरह निकेल-जब तक थे, लगता था, नैनीताल की सांस्कृतिक छत सुरक्षित और अपराजेय है। वह मुख्यधारा के कलाकार नहीं थे, मगर उनके बिना नैनीताल के सांस्कृतिक चरित्र की कल्पना संभव ही नहीं है। कितनी पीढ़ियों को उन्होंने तराशा। ये नये लोग मुख्यधारा का नेतृत्व करते रहे जब कि सखा साहब आज भी, इस वक्त भी, परदे के पीछे मेकअप और स्टेज-सैटिंग में पागलों की तरह व्यस्त हैं। नैनीताल में कहां ढूंढें उन्हें?

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