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उत्तराखण्ड

जब भांग–भंगीरे की चटनी से निकला ‘वाह!’— लोहाघाट में अटल जी की यादें आज भी जीवंत, 10 नवंबर 1981 का वह ऐतिहासिक दिन

गणेश दत्त पांडे, लोहाघाट। 10 नवंबर 1981… यह तारीख लोहाघाट के लोगों की स्मृतियों में आज भी जीवित है। यही वह दिन था जब भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी पहली और आखिरी बार लोहाघाट पहुंचे। उनका यह भ्रमण केवल एक राजनीतिक कार्यक्रम नहीं, बल्कि पहाड़, पहाड़ी संस्कृति और यहां के भोजन से जुड़ा एक आत्मीय अनुभव बन गया।
टनकपुर से चलकर जैसे-जैसे काफिला आगे बढ़ा, ठंडी हवा और पहाड़ों की वादियों ने अटल जी को पहले ही एहसास करा दिया था कि वे हिमालय की गोद में प्रवेश कर चुके हैं। उनके साथ उस समय की “त्रिमूर्ति” में शामिल डॉ. मुरली मनोहर जोशी का मेरे लिए स्पष्ट संदेश था— “अटल जी को शुद्ध पहाड़ी भोजन ही कराया जाए।” इस जिम्मेदारी को निभाने में स्व. माधवानंद जोशी, स्व. हयात सिंह मेहरा और स्व. कृष्ण चंद्र पुनेठा भी जुड़े। सूखीडांग से लोहाघाट की हरी-भरी वादियों को निहारते हुए अटल जी भावविभोर हो उठे। उन्होंने कहा— “ईश्वर ने यहां के लोगों को कितनी सुंदर वनों की गोद में बसाया है, आप लोग सचमुच भाग्यशाली हैं।”
रामलीला मैदान में जनसभा के दौरान उन्होंने हिमालयी क्षेत्र की कठिन भौगोलिक परिस्थितियों के बीच स्वाभिमान से जीवन जीने वाले लोगों की प्रशंसा करते हुए कहा कि उनसे उन्हें नई प्रेरणा मिली है। सभा के बाद अटल जी ने मुख्य बाजार में पैदल भ्रमण किया। टनकपुर से लगातार यात्रा के कारण वे थक चुके थे, इसलिए मायावती आश्रम नहीं जा सके। डाक बंगले में उनके सम्मान में विशुद्ध कुमाऊनी व्यंजन परोसे गए। मड़ुए की रोटी, बड़पास और कुंडी का भात, झिंगोरा व लाल चावल की खीर, भट्ट की चुडकवानी, गहत की गौतानी, ककड़ी का झांस वाला रायता और विशेष रूप से भांग–भंगीरे की चटनी। जैसे ही अटल जी ने चटनी का स्वाद चखा, उनके मुंह से अनायास निकल पड़ा— “वाह!” भांग का नाम सुनकर वे क्षणभर चौंके, तब डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने मुस्कराते हुए बताया कि यह भुने भांग और भंगीरे के दानों से बनी चटनी है, जिसमें मिर्च, जीरा, पुदीना, अदरक और नींबू का रस मिलाया जाता है। साथ ही यह भी समझाया गया कि सदियों से पहाड़ के लोग ठंड से बचने और ऊर्जा पाने के लिए इन खाद्य पदार्थों का उपयोग करते आए हैं। यह जानकर अटल जी ने चटनी का और आनंद लिया और कहा कि पहाड़ के लोग तन से बलिष्ठ और मन से दृढ़ इसलिए होते हैं क्योंकि उनका भोजन पौष्टिक और प्रकृति के अनुरूप है। उन्होंने इन पारंपरिक खाद्य पदार्थों के अधिक उत्पादन पर भी जोर दिया। आज, जब उन्हीं के पदचिह्नों पर चलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मोटे अनाज और पहाड़ी उत्पादों को वैश्विक पहचान दिलाई है, तब अटल जी के वे शब्द और भी प्रासंगिक लगते हैं।

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