धर्मक्षेत्र
सांस्कृतिक नगर अल्मोड़ा का माँ जगदंबा सिद्ध पीठ डोलीडाना : एक अद्भुत शांति का समावेश
सांस्कृतिक नगर अल्मोड़ा का माँ जगदंबा सिद्ध पीठ डोलीडाना : एक अद्भुत शांति का समावेश
अमृता पांडे, अल्मोड़ा। डोलीडाना मंदिर अल्मोड़ा शहर से लगभग 3 किलोमीटर आगे गरमपानी-भवाली की ओर कर्बला के निकट पहाड़ी पर स्थित है। मुस्लिम कब्रिस्तान होने की वजह से जगह का नाम कर्बला पड़ा। अल्मोड़ा शहर की सीमा भी कर्बला से ही शुरू होती है। इस तिराहे से एक सड़क अल्मोड़ा शहर की ओर जाती है और दूसरी धारानौला होते हुए चितई मंदिर की तरफ। यह वही स्थान है जिसके बारे में कहा जाता है कि अपनी यात्रा के दौरान स्वामी विवेकानंद यहां पर मूर्छित होकर गिर गए थे और एक मुस्लिम फ़कीर ने उनकी मदद की थी। इस जगह से थोड़ा दूरी पर स्वामी जी की पहली अल्मोड़ा यात्रा की यादगार के तौर पर उनका स्मारक बना हुआ है। साथ ही विवेकानंद द्वारा बनाए जाने का भी प्रस्ताव है। तिराहे पर वह दुकान आज भी है, जहाँ चाय और मालपुए बरसों पहले खाये थे पर अब समय की माँग के हिसाब से मैगी और समोसे जैसी चीज़ों का भी एडिशन हो गया है। चीड़ और देवदार के मिश्रित पेड़ों से घिरे इस क्षेत्र में लेप्रोसी हॉस्पिटल है जो 1836 के आसपास स्थापित बताया जाता है। यहाँ पर एक चर्च भी स्थित है, जिसके दर्शन सालों पहले तब किये थे जब एक सहेली के डॉक्टर पिता अस्पताल में तैनात थे। हम छोटी उम्र में उन्हें श्रीलंका वाले डॉक्टर कहते थे संभवतः उन्होंने वहाँ पर अपनी सेवाएं दी होंगी। यहीं से रास्ता जाता है देवी के धाम डोली डाना को जिसे माँ जगदंबा सिद्ध पीठ भी कहते हैं। इस मंदिर से बचपन की ढेरों यादें जुड़ी हैं। बचपन में तीन किलोमीटर पैदल चलकर भी अपने घर से मंदिर तक पहुँच जाते थे पर अब ये प्रचलन कम हुआ है। यूँ व्यक्तिगत तौर पर चलने फिरने की आदत बरकरार है पर पैदल जाने की चाह भी रखें तो संकरी रोड में ट्रैफिक इतना कि चलने में भी डर लगता है। मंदिर के नीचे मुख्य मार्ग पर वाहन खड़ा करने के लिए काफी स्थान है। वहाँ से ऊपर लगभग सात.आठ सौ मीटर की चढ़ाई पैदल तय करनी पड़ती है। आसपास के गांवों को जाने के लिए अब कच्ची सड़क भी बन गई है जो पहले नहीं थी। मंदिर तक पहुँचने के लिए खड़ंजे का रास्ता बना है और मंदिर से बिल्कुल पहले लगभग पन्द्रह बीस सीढ़ियां हैं। दोनों तरफ चीड़ के जंगल, उनमें बंदरों की टोली इधर से उधर कूदते हुए, कभी राहगीरों को घूरते हुए मानो कह रहे हों कि हमारे एरिया में आए होए चुपचाप आगे निकल जाओ। नजर मिलाने की कोशिश न करना। चुनौती जानकर कई बार हम हिंसक भी हो जाते हैं। अपनी पेट की आग बुझाने के लिए ये हमेशा कुछ न कुछ ढूँढते रहते हैं। कुछ न हो तो भक्त जनों के हाथ में दिखने वाली प्रसाद की थैली झपटने से भी गुरेज नहीं करते हैं। आख़िर पापी पेट का सवाल है। रास्ते में गाय चराते कुछ ग्रामीण भी आपको मिल जाएंगे। दिन दोपहर ही नशे में चूर कोई अधेड़ भी जो किसी तरह की अशिष्टता तो नहीं करेगा लेकिन आपसे दीदी, भुला, दाजू का रिश्ता जोड़ कर इस तरह नमस्ते कहेगा कि मानो आप उसके पुराने परिचित हों। दोनों तरफ पड़ी बड़ी बड़ी शिलाओं में श्री राम और मां जैसे शब्द लिखे बचपन के दिनों से ही देखते आ रहे हैं। इन दोनों शब्दों में एक विशेष तरह की ऊर्जा है जो न थकने देती है, ना रुकने देती हैं मन का पंछी माँ और श्रीराम से एकाकार हो बढ़ता चला जाता है और मंदिर पहुंचकर ही ठिकाना पाता है। एक अद्भुत शांति का समावेश है इस मंदिर में भी, जैसा हम पहाड़ के सभी मंदिरों में देखते हैं थोड़ा बहुत पुनरुद्धार के साथ मंदिर अपने पूर्व रूप में ही है जो भक्तों की आस्था को बलवती करता है। दुर्गा माँ के अलावा यहां पर शिव, भैरव और हनुमान जी की भी पूजा होती है। कभी सुनते थे कि मंदिर में रोज़ एक शेर आता है जो किसी को कोई नुकसान नहीं पहुँचता, घूम फिर कर वापस चला जाता है। इस बात में कितनी सच्चाई पता नहीं। शारीरिक संरचना और व्यवहार लगभग एक सा होने के कारण कई बार सामान्य जन इन्हें बाघ या शेर भी कह देते हैं लेकिन तेंदुआ और गुलदारों का आना अब आम बात हो गई है। जाड़े के मौसम में भी जंगल में आग लगा चिंता जनक है। मगर ऐसी घटनाएं हो रही हैं। चारों तरफ खुला खुला वातावरण। चीड़ के पेड़। बिछौना बना पिरूल इस वातावरण में चहल कदमी कर ही रहे थे कि तभी कहीं से बच्चों की आवाज आई। इधर.उधर देखने पर पता चला कि मंदिर के दूसरी तरफ एक बहुत बड़ा मैदान है जहां बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। यह मैदान हमारी एक नई खोज थी। पहली यात्राओं के दौरान कभी इस मैदान की तरफ ध्यान नहीं गया था। संभव है तब वहाँ पर पेड़ हों। बच्चों की खिलखिलाहट से भरे इस परिदृश्य ने पुरानी यादों को झकझोरा और छेड़ दिया एक पुराना किस्सा। एक बार हम आर्मी पब्लिक स्कूल की कुछ टीचर्स छोटे बच्चों को लेकर पिकनिक मनाने डोलीडाना मंदिर पहुंचे थे। चूंकि बच्चे छोटी क्लास के थे और यह मंदिर स्कूल से बहुत ज्यादा दूर नहीं था इसलिए इसी जगह का चुनाव किया गया। आर्मी की बस में बैठकर हम सब करबला के जंगल में पहुंचे थे। वहाँ पहुँचकर बच्चे तो उछल कूद और दौड़ भाग करने ही लगे, हम आठ दस टीचरें भी ख़ुद को आज़ाद पंछी महसूस करने लगे थे क्योंकि स्कूल का शेड्यूल बहुत ही टाइट रहता था। अक्सर एक दूसरे से बात करने की फुर्सत भी नहीं होती थी। हम लोग भी पिकनिक के मूड में थे और आपस में गपशप और हंसी-मजाक होने लगी। फिर अंताक्षरी का दौर चला और हमारी आवाज वादियों में गूंजने लगीं। कुछ देर के लिए हम सब कुछ भूल गए थे। तभी कुछ बच्चे दौड़ कर आए और उन्होंने एक बच्चे के चोट लगने की बात कही। सुनते ही हमारी सारी मौज मस्ती काफूर और हाथ पैर फूल गए। कुछ एक्टिव और समझदार टीचर्स भागकर बच्चों के पास पहुंचीं और देखा कि एक बच्चे के हल्की सी चोट लगी थी। पास में ही लेप्रोसी मिशन हॉस्पिटल की डिस्पेंसरी पहुँचकर बच्चे को तुरंत दवा लगवाई। सामान्य सी चोट थी बच्चे फिर खेलने लगे हमारी भी जान में जान वापस आई। सच किस्सों का संसार निराला है।