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नैनीताल

उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के शहीद प्रताप सिंह को दी श्रद्धांजलि, शहीदों की जरूरत अब किसे है?

सीएन, नैनीताल। समय बहुत तेज भागता है और मनुष्य की स्मृति बहुत छोटी होती है. उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के चरमोत्कर्ष के साल, 1994 के उन घटनापूर्ण दिनों को लोग भूलने लगे हैं. 40-45 वर्ष से कम आयु के लोगों को तो ज्यादा याद होने का सवाल ही नहीं है. मगर हम आन्दोलनकारियों के लिये उन घटनाओं को भूल पाना असंभव है. हर वर्ष एक सितम्बर और दो अक्टूबर को हम लोग खटीमा, मसूरी, मुजफ्फरनगर और अन्यत्र शहीद हुए हमारे बलिदानियों को नियमपूर्वक श्रद्धांजलि देते हैं. ये कार्यक्रम प्रदेश में कई जगह होते हैं. और तो और, उत्तराखंड की अवधारणा को पूरी तरह ध्वस्त करने वाली हमारी सरकारें भी इन मौकों पर पीछे नहीं रहतीं. मगर हम नैनीताल वालों के 3 अक्टूबर का दिन विशेष रूप से महत्वपूर्ण है. 1994 में इसी दिन रैपिड एक्शन फोर्स के तीन जवानों ने प्रताप सिंह नामक एक घरेलू कामगार युवा को पॉइंट ब्लैंक गोली चला कर मार डाला था. 2 अक्टूबर के मुजफ्फरनगर कांड की सूचना मिलने पर नैनीताल में प्रति दिन निकलने वाला जलूस 3 अक्टूबर को कुछ ज्यादा ही उग्र हो गया था. पथराव होने पर पुलिस ने पहले अश्रु गैस के गोले फेंके और फिर गोली चला दी. गोली चालन का आदेश देने वाले एस. डी. एम. बाद में कुमाऊँ कमिश्नर के पद से रिटायर हुए. ग्राम मिरौली (अल्मोड़ा) निवासी 33 वर्षीय प्रताप सिंह डांठ पर पुलिस और आन्दोलनकारियों के बीच चल रही गुत्थमगुत्था को बहुत दूर, चढ़ाई पर स्थित मेघदूत होटल की छत से देख रहा था कि तभी रैपिड एक्शन फोर्स के जवानों ने उसे घेर लिया. ये जवान बाद में अदालत से बाइज्जत बरी हो गये. ढंग से पैरवी हुई ही नहीं. उस शाम शमशेर सिंह बिष्ट और मैं तत्कालीन कुमाऊँ कमिश्नर पी. डी. सुधाकर से मिलने मेघदूत होटल गये तो मेघदूत होटल का मुख्य द्वार प्रताप सिंह के खून के थक्कों से लिथड़ा पड़ा था. अगले वर्ष 3 अक्टूबर तक अपनी उत्तराखंड महिला मंच की साथियों के उकसाने पर मैंने सामने दीवार पर एक शिलालेख लगवा दिया और हम लोग हर वर्ष वहाँ पर प्रताप सिंह को श्रद्धांजलि देने लगे. राज्य बनने के बाद मेरी लगातार जिद के कारण तत्कालीन जिलाधिकारी राकेश कुमार और विधायकों, नारायण सिंह जंतवाल व खड़क सिंह वोहरा की कोशिशों से वहाँ पर एक शहीद स्मारक बन गया. अब हम हर साल 3 अक्टूबर को सायं 4 बजे, यही प्रताप सिंह के मारे जाने का समय था, उसे श्रद्धांजलि देते हैं. अब लोग कम हो गये हैं, फिर भी आज शेखर पाठक, उमा भट्ट, दिनेश उपाध्याय, चंपा उपाध्याय, माया चिलवाल, मनमोहन चिलवाल, विनीता यशस्वी और शीला रजवार अपना कर्तव्य निभाने वहाँ पहुंचे. शहीद स्मारक में अभी बहुत सा काम होना शेष है. मगर बार-बार कोशिश करने पर भी अब अधिकारी एक कान से सुनते हैं और दूसरे से निकाल देते हैं. शहीदों की जरूरत अब किसे है?

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