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प्रेत और उसका बेटा : कुमाऊंनी लोककथा

प्रेत और उसका बेटा: कुमाऊनी लोककथा
बहुत समय पहले की बात है। एक आदमी की मृत्यु हो गयी। उसका 10-12 साल का एक ही बेटा था. जब उस आदमी के शव को अंतिम संस्कार के लिए श्मशान घाट ले जाया जा रहा था, उसके बेटे ने पिता के साथ जाने की जिद की। इस पर उसकी माँ और गाँव के अन्य लोगों ने उसे ऐसा करने से रोका। लेकिन लड़का चोरी-छिपे पहाड़ों के बीच एक ऐसी समतल जगह पर पहुँच गया जहां से अंतिम संस्कार वाले स्थान को देखा जा सकता था। उसके बाद लड़के ने यह मान लिया कि उसके पिता ने अब उस जगह रहना शुरू कर दिया है जहाँ उनके दाह संस्कार हेतु चिता बनाई गयी थी। उसने हर रात घाट जाने की आदत डाल ली। घाट जाकर वह उन्हें आवाज लगाता…पिताजी! पिताजी! उसे मालूम न था कि उसके पिता अब प्रेत बन चुके थे और उसके पुकारने से कुछ होने वाला नहीं था। एक रात वह रोज की भांति वैसा ही कर रहा था जब उसके पिता का प्रेत मानव आकृति धर कर उसके सामने प्रकट हुआ। लड़के को लगा उसके पिता वापस आ गए हैं और वह उनसे लिपट गयाण् उसने पिता के प्रेत से कहना शुरू किया जब तक आप घर पर रहते थे मुझे हर रोज खूब घी-दूध खिलाते थे अब आपके जाने के बाद वह सब मिलना बंद हो गया है। लडके के ऐसा कहने पर प्रेत ने पड़ोस के एक खंडहर हो चुके घर की तरफ इशारा किया और उससे वहां खुदाई करने और ऐसा करने से मिलने वाले धन को ले लेने को कहा। उसके भीतर खुदाई करोगे तो खजाना हासिल होगा। तुम उसे ले लेना। लडके ने खंडहर की दीवार को ढहा दिया जिसके नीचे उसे पैसों से भरा एक मर्तबान मिला। उसके बाद लड़के के सामने उसके पिता का प्रेत फिर कभी प्रकट नहीं हुआ।
यह कथा ई. शर्मन ओकले और तारादत्त गैरोला की 1935 में छपी किताब हिमालयन फोकलोर से ली गयी है। मूल अंग्रेजी से इसका अनुवाद अशोक पाण्डे ने किया है। काफल ट्री से साभार

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