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चम्पावत

लधोनधूरा की ऊंची पहाड़ी में होने वाला उत्तराखंड का अनूठी परंपरा का मेला

सीएन, चम्पावत। चंपावत जिले में क्षेत्रीय संस्कृति एवं मेलजोल बढा़ने वाले इस प्रकार के भी मेले हैं, जहां दलितों की उपस्थिति के बगैर भगवान की रथ यात्रा शुरू ही नहीं होती है। यही नहीं पूजा अर्चना के नियम भी यहां काफी कठोर हैं तथा यहां के लोग कभी मांसाहार नहीं करते। बैकुंठ चतुर्दशी के दिन घने जंगलों के बीच लोगों द्वारा लधोनधूरा की ऊंची पहाड़ी में होने वाला उत्तराखंड का यह पहला मेला है जिसकी अनूठी परंपरा एवं मान्यताएं होने के साथ यहां रात के सन्नाटे के बीच देवी देवताओं का जयकारा करते हुए डोला यात्रा निकाली जाती है जो सुबह भोर में मंदिर पहुंचती है। कहा जाता है कि 12 वीं शताब्दी में मुगलों के आतंक से भयभीत बैजनाथ से आए बाईस परिवारों ने यहां शरण ली। इसी स्थान से कुछ दूरी पर महाशक्ति ने अपने को अवस्थित कर लिया। जब एक गाय रोज इस शक्ति स्थल पर स्वयं रुद्राभिषेक करने लगी तो लोगों को इसकी जानकारी हुई। सपनों के आधार पर लोगों ने यहां शिवालय की स्थापना की। स्वप्न में उन्हें बताया गया कि निर्माशी यानी मांस ना खाने वाले लोग ही यहां पूजा-अर्चना करेंगे। बाद में इस स्थान पर आए चंद्र शासक को शिव शक्ति की महिमा का एहसास हुआ तथा उन्होंने यहां पर 10 किलोग्राम वजनी चांदी का छत्र चढ़ाया जो आज भी सुरक्षित है। शुरुआत में यहां खरही गांव के लोग पूजा करते थे‌। उनके कुल में किसी व्यक्ति द्वारा मांसाहार करने से उन्हें शक्ति का कोप भाजन बनना पड़ा। बाद में वैंजगांव, नांखूड़ा एवं ईजर गांव के लोगों को पुजारी नियुक्त किया गया। यहां के लोग शताब्दियों से पीढ़ी दर पीढ़ी मांसाहार नहीं करते हैं। बैकुंठ चतुर्दशी के दिन महाशक्ति का डोला उठता है जब तक दलित लाठियों से लैस होकर खड़े नहीं रहते तब तक डोला नहीं उठता है। तल्ली-मल्ली खरही के लोग उसके बाद डोला उठाते हैं। बाद में बिरगुल के महराना लोग हाथों में लोहे की सरिया लिए चलते हैं। इसके बाद यह ढोला ढोल नगाड़ों के साथ यहां से आठ किलोमीटर दूर घने जंगलों से होता हुआ लधोनधूरा के लिए चल पड़ता है। डोला भोर होते ही पहाड़ी में स्थित मंदिर में उस समय पहुंचता है जब सूर्य की पहली किरण उस पर पड़ती है। यहां पहले से ही महिलाएं रात्रि जागरण कर डोले की प्रतीक्षा करती हैं जहां शिव शक्ति का डोला परिक्रमा के बाद विसर्जित कर दिया जाता है। वहां हल्दी के पत्तों बनाए गए खोच्चे को सर में सात बार घुमाया जाता है। मान्यता है कि बगैर खोच्चे को घुमाए कोई अन्न एवं जल ग्रहण नहीं करता है। ऐसा न करने पर फोड़े फुंसी हो जाते हैं। सुबह मंदिर से लौटने के बाद गांव के लोग मंदिर की तलहटी में भंडारा लगाते हैं। शनिवार को बैजगांव में रात्रि जागरण किया गया। इससे पूर्व यहां के सभी देवी देवताओं को गंगाजल से स्नान कराया गया।

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