उत्तराखण्ड
राज्य स्थापना दिवस: 24 सालों से राज्य में रोजगार के नाम पर ठगते आ रहे सियासी दल
राज्य बनने के बाद कांग्रेस व भाजपा सत्ता में आई पर नहीं खुले रोजगार के अवसर
उत्तराखंड राज्य में एक हजार की जनसंख्या में है 70 बेरोजगारों की फौज
चन्द्रेक बिष्ट, नैनीताल। आज राज्य बने 24 साल हो गये स्थापना दिवस के नाम पर फिर दिवा स्वप्न दिखाने का कार्य होगा। उत्तराखंड राज्य बनाने की अवधारणा के पीछे सबसे बड़ा मुद्दा उत्तराखंड में बढ़ती बेरोजगारी को रोकने व रोजगार अवसर पैदा करना भी था। लेकिन इन 24 सालों में भाजपा व कांग्रेस की सरकारें आई लेकिन रोजगार के अवसर नहीं खुले। बात हम ऐसे ही नहीं कह रहे हैं, बल्कि सरकारी आंकड़े इसकी गवाही खुद दे रहे हैं। सेवायोजन कार्यालय के पिछले पांच सालों के आंकड़ों पर गौर करें तो प्रदेश में बीते पांच सालों के अंदर पंजीकृत बेरोजगारों का आंकड़ा 9.23 लाख के करीब पहुंच गया है, जिसमें से मात्र 17 हजार युवाओं को ही रोजगार मिल पाया है। यहां पंजीकृत बेरोजगार की संख्या की जो बात हो रही है, वो संख्या वह है, जिन्होंने सेवा नियोजन यानी एंप्लॉयमेंट ऑफिस में अपना रजिस्ट्रेशन करवाया है। सेवा नियोजन कार्यालय में पंजीकरण न करने वाले युवाओं की संख्या भी ठीक.ठाक मानी जाती है। यानी अगर बेरोजगारों की बात करें तो प्रदेश में सेवायोजन विभाग के आंकड़े से कई ज्यादा युवा बेरोजगार होंगे। बेरोजगारी के इन आंकड़ों में मैदानी जिले सबसे आगे हैं। सबसे ज्यादा पंजीकृत बेरोजगार 121,628 राजधानी देहरादून में हैं। वहीं दूसरे नंबर पर हरिद्वार है, जहां 113,110 पंजीकृत बेरोजगार हैं। तीसरे नंबर पर उधमसिंह नगर में 92,396 पंजीकृत बेरोजगार हैं। हैरानी की बात ये है कि पिछले 5 सालों में केवल 17,743 अभ्यर्थियों को ही रोजगार मिला है। प्रदेश में लगातार बढ़ती जा रही शिक्षित युवाओं की बेरोजगार फौज देश और समाज दोनों के लिए चिंता का विषय है। प्रदेश के युवाओं को रोजगार के ज्यादा से ज्यादा अवसर मिले, इसके लिए सेवायोजन विभाग हर साल कई रोजगार सृजन से जुड़े कई कार्यक्रमों का आयोजन करवाता है। पिछले पांच सालों में सेवायोजन विभाग ने करीब 700 रोजगार मेले लगाए हैं, जिसमें लाखों युवाओं ने प्रतिभाग किया है, लेकिन नौकरी सिर्फ 17 हजार को ही मिल पाई है, जो कि आठ लाख बेरोजगारों के लिए ऊंट के मुंह में जीरे जैसा है। हालत यह है कि आज राज्य के 13 जिलों में 9.23 लाख बेरोजगार पंजीकृत है। हालत तो यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में अपंजीकृत बेरोजगार मजदूरी के लिए शहरों में भटक रहे है या फिर प्रदेश से बाहर पलायन कर चुके हैं। भारत सरकार के केन्द्रीय श्रम व रोजगार मंत्रालय की वार्षिक रोजगार व बेरोजगार सर्वे रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्तराखंड में एक हजार की जनसंख्या में 70 लोग बेरोजगार है। इस तरह से इस समय राज्य में लाखों लोग बेरोजगार है। यह भी कडुवा सच है कि राज्य बनने के बाद रोजगार तो नही बढ़ा लेकिन पलायन की गति बढ़ गई। एक अनुमान के अनुसार ऐसे बेरोजगारों की संख्या करोड़ से अधिक है। पिछली सरकार ने इन बेरोजगारों को भत्ता देने की घोषणा की थी लेकिन यह भत्ता भी नहीं दिया गया। आश्चर्य यह है कि उत्तराखंड में होने वाले विधान सभा चुनावों में कांग्रेस व भाजपा के घोषणा पत्रों में रोजगार का मुद्दा मुख्य रूप से शामिल होता है। बीते लोक सभा चुनावों में भाजपा की ओर से मुख्य रूप से रोजगार देने का मुद्दा बनाया था। हालत यह है कि स्वरोजगार के नाम पर जितनी भी केन्द्रीय योजनाएं लागू की गई उसमें बेरोजगारों को लाभ नहीं मिल पाया। इन योजनाओं की जटिल प्रक्रियाओं के चलते बेरोजगारों का मोह भंग हुआ है। वहीं दूसरी ओर पूर्ववर्ती कांग्रेस की राज्य सरकार ने भी रोजगार तो नही दिया लेकिन पंजीकृत बेरोजगारों को भत्ता देना भी खत्म कर दिया गया। यह कांग्रेस के घोषणा पत्र में प्रमुख रूप से शामिल भी किया जाता रहा है। वर्ष 2000 में उत्तराखंड राज्य की स्थापना होने के बाद सत्तासीन दलों ने रोजगार का मुद्दा प्रमुख रूप से उठाया था। 2002 के चुनावों में पहली बार कांग्रेस की चुनी हुई सरकार आई। मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने रोजगार की दिशा में हरिद्वार व उधम सिंह नगर में सिडकुल के माध्यम से उद्योगों की स्थापना कर प्रदेश के युवाओं व बेरोजगारों को 70 प्रतिशत रोजगार दिये जाने की बात भी कहीं लेकिन ऐसा नहीं हो सका। तकनीकी ज्ञान नहीं होने से युवाओं को रोजगार दिये जाने से मना कर दिया जाता हैं। सिडकुल उद्योगों में जो भी युवा रोजगार प्राप्त कर सके उनकी हालत आज एक दयनीय मजदूर की तरह है। इस रोजगार की दीर्घकालीन गारंटी भी नहीं है। इसके बाद भाजपा और फिर कांग्रेस की सरकार सत्ता में काबिज हुई लेकिन रोजगार की घोषणाएं महज घोषणाएं साबित हुई। आज प्रदेश का युवा रोजगार के लिए तरस रहा है। उसके सामने पलायन करने के अलावा कोई विकल्प भी नही है।