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जब हिमालय पुत्र गोबिन्द बल्लभ पंत ने तो नौकरशाही की हेकड़ी निकाल दी

जब हिमालय पुत्र गोबिन्द बल्लभ पंत ने तो नौकरशाही की हेकड़ी निकाल दी
सीएन, नईदिल्ली।
नौकरशाही कोई आज ही सरकारपरस्त नहीं हैं। गुलामी के दौर में भी ये कुछ कम गुल नहीं खिलाती थी। अलबत्ता तब उसका रूप जरा दूसरा था। इसके तहत ही उसने 1937 में कई प्रदेशों, ख़ासकर उत्तर प्रदेश में बनी कांग्रेस सरकारों का काम करना दूभर कर दिया था। भले ही ब्रिटिश हुकूमत ने वे सरकारें साइमन कमिशन की बहुचर्चित रिपोर्ट और दूसरी गोलमेज कॉन्फ्रेंस के बाद किए गए शासन सुधारों के क्रम में ‘भारतीयों को वह जिम्मेदार सरकार प्रदान करने’ के उद्देश्य से बनवाई थीं, जिसकी उन्हें ‘बहुत आवश्यकता’ थी। शासन सुधारों के तहत ब्रिटिश पार्लियामेंट ने 1935 का गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट बनाया तो 1937 में उसके प्रावधानों के तहत प्रांतों की विधानसभाओं के चुनाव कराए गए। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने लखनऊ अधिवेशन के निश्चय के अनुसार ये चुनाव तो लड़े, लेकिन जीतने पर सरकार बनाने या ना बनाने का फैसला बाद के लिए टाल दिया। विभिन्न विधानसभाओं की कुल 1585 सीटों पर हुए चुनावों में अंग्रेज़ों की सत्ता की समर्थक पार्टियों और प्रत्याशियों ने सरकारी मशीनरी का भरपूर दुरुपयोग किया। तमाम छल-छद्मों के बावजूद कांग्रेस ने अकेले दम पर 711 सीटें जीत लीं। उत्तर प्रदेश, मद्रास, मध्य प्रदेश, बिहार और उड़ीसा में उसकी पूरी तरह जीत हुई, जबकि बंगाल, बम्बई, असम और सीमा प्रांत में वह अकेली सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। अलबत्ता, सिंध और पंजाब में वह नाकाम रही। इसके थोड़े ही दिनों बाद उसने दिल्ली में हुए अपने राष्ट्रीय सम्मेलन में घोषणा कर दी कि जिन राज्यों में उसे बहुमत मिला है, उनमें वह तभी सरकार बनाएगी, जब उसे विश्वास होगा कि संबंधित राज्यों के गवर्नर उसकी सरकार के रोजमर्रा के कामों में दखल नहीं देंगे। लेकिन, गवर्नरों ने उसे इसका विश्वास दिलाने के बजाय उन बड़े अंग्रेज़ अफ़सरों को आश्वस्त करने को तरजीह दी, जो इस बात को लेकर असहज हो उठे थे कि अब देसी कांग्रेसी मंत्री उन पर हुक्म चलाएंगे। गवर्नरों ने इन अफ़सरों को बताया कि कांग्रेसी सरकारें या मंत्री उनका बाल भी बांका नहीं कर पाएंगे, क्योंकि लागू किए गए ऐक्ट के तहत उनकी नौकरी और अधिकार एकदम सुरक्षित रखे गए हैं। व्यवस्था की गई है कि वे सीधे गवर्नर के चार्ज में रहेंगे और प्रांतों की सरकारें ना उन्हें डिसमिस कर सकेंगी और ना उनका वेतन घटा सकेंगी। उत्तर प्रदेश की बात करें, तो गवर्नर ने कुछ ही दिनों बाद कांग्रेस को दरकिनार कर नवाब छतारी के नेतृत्व में अल्पमत सरकार को शपथ दिला दी। हालांकि उनका यह क़दम कांग्रेस पर सरकार बनाने का दबाव डालने की रणनीति के तहत ही था, क्योंकि सबको पता था कि अल्पमत सरकार विधानसभा में अपना बहुमत सिद्ध नहीं कर पाएगी। इसीलिए भारत में वायसराय और इंग्लैंड में भारतमंत्री कांग्रेस की मान-मनौव्वल करते रहे और कांग्रेस के उनके वादों से संतुष्ट होने के बाद जुलाई, 1937 में उत्तर प्रदेश में गोविंद वल्लभ पंत प्रधानमंत्री बने। तब मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री ही कहते थे। साथ ही रफी अहमद किदवई, डॉ. कैलाश नाथ काटजू, सम्पूर्णानंद, हाफिज मुहम्मद इब्राहिम और विजयलक्ष्मी पंडित मंत्री और पुरुषोत्तम दास टंडन विधानसभा अध्यक्ष। लेकिन, इस सरकार ने सत्ता संभालते ही पाया कि अंग्रेज़ अफ़सरों का असहयोगी रवैया, उस पर गवर्नर के रोज-रोज के दखल से भी कहीं ज़्यादा भारी पड़ रहा है। दरअसल, अफ़सरों ने अपने नस्ली अहंकार में काले कांग्रेसी मंत्रियों के आदेशों की सर्वथा अवज्ञा का मंसूबा बना लिया था। वे चाहते थे कि इन कालों के लिए सरकार चलाना कतई आसान ना रह जाए और वे महीने-दो महीने में ही ‘पागल’ होकर इस्तीफा दे दें और भाग जाएं। इन अफ़सरों के सरदार थे पुलिस के इंस्पेक्टर जनरल पीयर्स। तब इंस्पेक्टर जनरल प्रदेश की पुलिस का सर्वोच्च पद था। पेशबंदी के तौर पर उन्होंने प्रदेश के ख़ास-ख़ास दो सौ थानों में इस गुप्त हिदायत के साथ मुस्लिम लीग के समर्थक दीवान नियुक्त कर दिए थे कि वे किसी कांग्रेसी के आदेश के बावजूद सांप्रदायिकता फैलाने और उपद्रव कराने वाले तत्वों के ख़िलाफ़ एफआईआर ना लिखें। लेकिन, पुलिस मंत्री रफी अहमद किदवई को, जो मालमंत्री भी थे, इसका पता चला तो उन्होंने बातों ही बातों में यह कहते हुए उससे दूसरी मानसिकता वाले दो सौ पुलिस दीवानों की सूची मांग ली कि ‘हमें तो अब सबका ख्याल रखना है।’ पीयर्स उनका इरादा नहीं भांप पाया और उसने जल्दी ही उक्त सूची उन्हें भेज दी। फिर क्या था, रफी अहमद ने यह सोचकर कि वे पीयर्स को ना सही, पुलिस के दीवानों को तो इधर-उधर कर ही सकते हैं। उन्होंने पीयर्स के तैनात किए कांग्रेस विरोधी मानसिकता के दीवानों को हटाकर नई सूची वाले दीवान तैनात करा दिए। पीयर्स को इसका पता चला तो वह इतना शर्मिंदा हुआ कि उनके सामने पड़ने से बचने लगा और आखिर में छुट्टी लेकर इंग्लैंड भाग गया। लेकिन, अंग्रेज़ अफ़सरों का रवैया इतने भर से नहीं बदला। माल विभाग के एक संसदीय सचिव रफी अहमद के प्रतिनिधि बनकर फाइलों के निरीक्षण के लिए गोरखपुर गए तो अपनी अंग्रेज़ियत का गुमानी कलक्टर उनका औपचारिक स्वागत करने भी नहीं आया। सिटी मैजिस्ट्रेट को भेज दिया। यह सिटी मैजिस्ट्रेट भारतीय था। संसदीय सचिव ने पूछा तो उसने साफ़ कह दिया कि कलेक्टर अवज्ञा के भाव में डूबा है। इस पर संसदीय सचिव यह कहकर बिना निरीक्षण किए लौट गए कि यह उनका ही नहीं, संबंधित मंत्री का भी अपमान है। उन्होंने यह बात प्रधानमंत्री गोविंद वल्लभ पंत को बताई, तो उन्होंने अपनी आदत के अनुसार ‘अनुकूल अवसर की तलाश में’ इस प्रकरण को कुछ दिनों के लिए ठंडे बस्ते में डाल दिया और तब बाहर निकाला, जब गोरखपुर की एक तहसील से प्रशासनिक अकुशलता की कुछ ख़बरें आईं। उन ख़बरों का संज्ञान लेते हुए उन्होंने उक्त कलेक्टर को लिखा कि वह संबंधित तहसील के डिप्टी कलेक्टर (एसडीएम) का चार्ज ले ले और अपना चार्ज सिटी मैजिस्ट्रेट को सौंप दे। उनके इस आदेश ने ना सिर्फ उस कलक्टर, बल्कि सारे अंग्रेज़ अफ़सरों के पांवों के नीचे की धरती कंपा दी। कलेक्टर, गोविंद वल्लभ पंत के ‘अनधिकार’ आदेश के ख़िलाफ़ गवर्नर सर हेरी गेग के पास गया। जब गवर्नर के बुलावे पर अपना पक्ष रखने पंत राजभवन पहुंचे, तो पाया कि वह कलेक्टर उसके बरामदे में बैठा है। उसे नज़रअंदाज़ कर वह गवर्नर के कक्ष में चले गए और कहा, ‘मैं जानता हूं कि क़ानून मुझे किसी आईसीएस अफ़सर को डिसमिस या इधर-उधर करने का अधिकार नहीं देता, लेकिन उससे काम लेने का अधिकार तो देता ही देता है। मैंने यही किया है, कलेक्टर को एक तहसील में, जहां व्यवस्था ठीक से काम नहीं कर रही था, उसे सुधारने को कहा है। मैं समझ नहीं पा रहा कि उसे इस काम में क्या परेशानी है और क्यों है?’ गवर्नर ने कोई उत्तर नहीं दिया तो उसके मौन को स्वीकृति मानकर पंत उठे और बाहर आकर बरामदे में जरा-सा रुककर कलक्टर से कहा, ‘आप बिना मुझसे पूछे अपना स्थान छोड़कर यहां आए हैं। कारण बताओ नोटिस भिजवा रहा हूं। जवाब देने के लिए तैयार रहिए।’ सुनकर कलक्टर चकरा गया। उसको समझ में नहीं आया कि अब क्या करे। उसकी मुश्किल तब कई गुना और बढ़ गई जब गवर्नर ने भी कह दिया कि उसके पास दो ही विकल्प हैं। पहला यह कि पंत से माफी मांग ले और दूसरा यह कि त्यागपत्र देकर स्वदेश लौट जाए। मरता क्या न करता! लेकिन, कलेक्टर पंत के पास गया तो भी उसे माफी नहीं मिली। उन्होंने उसे रफी अहमद किदवई के पास भेज दिया। यह कहकर कि वास्तव में वह उन्हीं का कुसूरवार है। लेकिन, रफी अहमद ने भी उसे उपकृत नहीं ही किया। उन्हीं संसदीय सचिव के पास भेज दिया, अपनी अकड़ में वह जिनका स्वागत करने नहीं गया था। कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ ने अपनी एक पुस्तक में इसका ज़िक्र करते हुए लिखा है, ‘इस तरह उस कलक्टर का पूरा दर्प कुछ ही घंटों में झड़ गया… और उसका दर्प ही क्या, पूरी अंग्रेज़ अफ़सरशाही का दर्प झड़ गया।’ लेकिन, इस सबके बावजूद भी गवर्नर के दखल सरकार का रास्ता रोकते ही रहे। गवर्नर से उसकी एक बड़ी भिड़ंत तब हुई, जब उसने प्रदेश की जेलों में बंद सभी राजबंदियों को रिहा करने का निर्णय किया। तत्कालीन गवर्नर ने इसमें अड़ंगा लगाया, तो बात समूचे मंत्रिमंडल के इस्तीफे तक जा पहुंची। आखिर में गवर्नर को झुकना पड़ा। तब जाकर मंत्रिमंडल का इस्तीफा वापस हुआ और राजबंदी छोड़े गए।

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