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संस्कृति

सरोला जिंदा और कायम है, भोजन करते समय जहां लग जाता है कर्फ्यू

सरोला जिंदा और कायम है, भोजन करते समय जहां लग जाता है कर्फ्यू
लोकेंद्र सिंह बिष्ट, उत्तरकाशी।
जी हां आज बात करते हैं अपने उत्तराखण्ड के पहाड़ के गांवों की ससकृति और रीति रिवाजों की। अपने उत्तराखण्ड के पहाड़ी गांवों में एक से बढ़कर एक मजबूत और शक्तिशाली समृद्ध पहाड़ी संस्कृति और रीति रिवाज जो आज भी हैं जिंदा। आओ अपने पहाड़ की इस इस मजबूत संस्कृति सभ्यता और रीति रिवाजों को जाने और इन्हे सजो कर रखें। इन्ही सभ्यताओं और रीति रिवाजों में एक है सरोला प्रथा। सामाजिक समारोह यानी शादी ब्याह या धार्मिक अनुष्ठान हों तो भोजन बनाने का काम जो व्यक्ति करता है वह शुद्ध रूप से धोती धारण करेगा। रसोइया को ही पहाड़ी सस्कृति में सरोला कहते हैं। मजाल क्या कि जब भोजन बन रहा हो और अन्य कोई व्यक्ति वहां प्रवेश कर जाय। भोजन के समय एक ही बार में सैकड़ों हजारों लोग जमीन में बैठकर भोजन करते हैं। इसमें खूबी ये है कि जब भोजन में चावल (भात) परोसा जाने लगेगा तो कोई भी व्यक्ति महिला हो या पुरुष या हो बच्चे कोई बीच पंक्ति में न तो उठेगा न कहीं जाएगा। बाकायदा भोजन परोसने से पहले घोषणा की जाती है कि भोजन शुरू होने वाला है। घोषणा से पहले कोई पंक्ति में आना या जाना चाहता है तो आ जा सकता है। एक बार घोषणा हो गई तो मानो कर्फ्यू लग गया। एक ही सरोला या फिर अधिक से अधिक दो सरोला ही सैकड़ों लोगों को एक साथ खाना यानी डाल भात दही रायता सलाद पकोड़े और विशेषकर भूनी हुई मिर्च यानी भूटि मिर्च परोसते हैं जो खाने के जायके में चार चांद लगा देती है। पानी का इंतजाम है तो ठीक नहीं तो आप पानी के लिए भी नहीं उठ सकते हैं। सरोला एक तरफ से चावल परोसता है दूसरे छोर तक परोसता जाता है, जब डाल की बारी आती है तो एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंचते पहुंचते पहली पंक्ति में बैठे लोग भोजन कर चुके होते हैं। दूसरी बार चावल चाहिए या फिर डाल लंबा इंतजार करना पड़ेगा। इस प्रक्रिया में घंटो लग जाते हैं लेकिन भोजन का अपना ही आनंद है इस तरह जमीन में बैठकर भोजन करने का।

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