संस्कृति
पहाड़ के जनमानस में बेहद जरूरी हिस्से की तरह स्थापित है वनों की सम्पदा
पहाड़ के जनमानस में बेहद जरूरी हिस्से की तरह स्थापित है वनों की सम्पदा
प्रो. मृगेश पांडे, हल्द्ववानी। वनस्पति जगत से मैत्री सम्बन्ध बने, आस्था के प्रतीक रूप में जीवंत हुए, तुलसी, पीपल में जल चढ़ा तो उसकी जड़ों को मिलते रहा। पूजा भी हुई वृक्ष का संरक्षण भी हुआ। पेड़ के नीचे चबूतरे बने। विश्राम भी किया। आशल कुशल भी हुई। आंवले को विष्णु का अवतार माना गया। फागुन में शुक्ल पक्ष की एकादशी को इसकी पूजा की जाती है। हर मांगलिक काम में कलश स्थापन आम की पत्तियों, कुश के ब्रम्हा व नारियल से किया गया। लाल वस्त्र से बांधा गया। मंगल गीत गाए गए।
धरती धरम ले कलेश थापो, आम की पाती ले कलेश थापो, पीपल पाती ले कलेश थापो गंगा जमुना का नीर ले कलेश थापो, चौमुखी ब्रह्मा ले कलेश थापो।
सत्यनारायण की पूजा में केले की पत्तियों से मंडप बने तो कन्यादान का मंडप भी। फल नैवेद्य में चढ़ा। कहा गया-चढ़ता प्रसाद सवायो कदली फल मेवा। गन्ने की लक्ष्मी बनी। हरिबोधिनी एकादशी को ईख भुइयाँ निकालने में लगा। कुकुड़ी.माकुडी, आकाशबेल, कैरवा, चीड़, डट्यालु, तिमुर, तिमुल, दाड़िम, देवदार, धतूरा, पय्याँ, बासिंग, बेडू, बेल, मेहल, रुद्राक्ष, सिवईं, सम्यो की पूजापाठ में चौल बनी रही। बड़ भी पनपा। बट को शिव व काली से जोड़ा गया। माना गया कि काली बट वृक्ष के नीचे बैठ ही संहार लीला करती हैं। वट सावित्री व्रत में इसके चारों ओर धागा बांध पूजा की गई पौंधों के बीच के रागात्मक समीकरण भी बने। विवाह में चीड़ व पदम की टहनियों के साथ सप्तपदी की रस्म हुई। चीड़ की कटी टहनी एकदम सूख जाती है अतः इसे विवाह से पहले के स्वछंद जीवन में विराम के रूप में देखा गया। तो पईयाँ के शीतकाल में आये सुंदर गुलाबी पुष्प इसे अन्य से भिन्न सौंदर्य प्रदान करते हैं तो यह परिकल्पना उभरी कि वैवाहिक जीवन का यह सुखी स्वरुप है। काफ़ी पहले तक भोटिया जनजाति के में विवाह के अवसर पर भोटिया जनजाति परिवार कुश के दो से अधिक तिनकों को हाथ से बट कर एक बना लेते, जो प्रतीक बनता कि वर.वधू अब एक हो गए हैं। इनके द्वारा कुजिलो या कुंजा, कुशा या कसेरा, पईयाँ, वन बाफिला या व्हे, फेन कँवल, बाग बस, घुरबेंस को धार्मिक कार्यों हेतु पवित्र माना गया। दयार को मंदिरों के निकट लगाया जाता तथा देवदार का पेड़ जिसके सिर्फ सिरे पर पत्तियाँ व शाखा हों, जंगल से ला मंदिर के आंगन में रोप दी जातीं, इसे बोयम कहते हैं। ऐसे ही ब्रह्म कमल, स्यासिन या भोजपत्र, मासी या जटामासी, श्याम कंणया का उपयोग अलग अलग तरीकों से बुरी आत्माओं को दूर करने के लिए किया जाता रहा है। ऐसे ही बारह साल में एक बार उगने वाले कंडाली के पौंधे को समाप्त करने का भी रिवाज बना। थारू एवं बोक्सा जनजातियों के द्वारा चिरचिटा या आधाजार, बेलुआ या बेलपत्री, हंसराज या काली चारी, बड़ाकरोना, बेला, नीम व पीपल का उपयोग नजर उतारने, भूत भागने, बुरी आत्माओं का प्रवेश रोकने के लिए किया जाता रहा। बुखार आने पर सरक बेल या आकाश बेल का टुकड़ा सिरहाने रख दिया जाता। बोक्सा दुधि, गुलबांस व इन्द्रजौ, क्वार या कुर्ची के पौंधे को शुभ मानते तो सर्पगंधा के पौंधे को इस विश्वास से लगाते कि इसके पास सांप नहीं आते, दाँत दर्द में चेंस, करेंटी या सहदेवी की टहनियों का उपयोग दाँत दर्द में किया जाता। दामिना या दाब की पत्तियों से मृतक के शरीर पर पानी इस विश्वास से छिड़का जाता उसकी आत्मा को शांति मिलेगी। शिवलिंग की तरह के फल को जो शिवलिंगी कहलाता है, गर्भ धारण हेतु दिया जाता है। थाकल या खजूरी की पत्तियों तथा आम की एक पत्ती को शादी में पहनने वाले मुकुट में लगाया जाता है। बोक्सा भी खजूरी या थाकव की पत्तियों को मुकुट में लगाते हैं। सेमरखा या सेमल के पेड़ की लकड़ी का मंडप शादी में बनाया जाता है। झिमटी के फूलों को शुभ मान शिव जी को अर्पित किया जाता है। थारू वरवधू के माथे पर हल्द या हल्दी का टीका शुभ माना जाता है। राजी जनजाति प्योली के पुष्प शुभ मानते हैं। घुरबेंस भी शुभ मना जाता है। चावल व उड़द के दानों से भूत भगाते हैं। भूतकेशी के तने का जानवरों के सामने धूप देने से बुरी आत्माएं भाग जाती हैं। ऐसा विश्वास बना है। राजी काले तिलों का भी प्रयोग इसी प्रयोजन से करते हैं। ददूरे निकलने पर चुए या चौलाई के दाने बिस्तर पर फैला देते हैं जिससे ददुरे पूरी तरह निकल जाएं। वहीँ यदि किसी की मृत्यु पंचकों में हुई हो तब कांस घास का पुतला बना कर शमशान घाट में छोड़ दिया जाता है। उत्तराखंड में कुश, बेलपत्री, तुलसी, बड़, पीपल, भोजपत्र, दूब, जौ तिल पलाश केला इत्यादि का प्रयोग सामान्यतः देव पूजन में किया जाता है। आक, ढाकए बड़, पीपल, कुशा, दूरबा, पलाश, खादिर की समिधा बनी। सोलह संस्कारों में वनस्पतियों के साथ गोधन का प्रयोग हुआ। पशुओं और पक्षियों से भी सामाजिक जीवन गहन रूप से जुडा है। मंदिरों के आसपास के इलाके में शिकार मारना वर्जित होता है। इससे जुड़ी अनेक लोकमान्यताएं हैं जैसे धौली नाग मंदिर, कांडा के पूरे इलाके में साँपों को नहीं मारा जाता। मंदिर व देव स्थलों को पर्यावरण संरक्षण का सुरक्षित क्षेत्र समझा जाता रहा है। वनों को बचाने के लिए इन्हें देवता को समर्पित किया जाता रहा है। हर गाँव के समीप के घने व काफ़ी पुराने वृक्षों के झुण्ड में प्रायः मंदिर दिखाई देते हैं। आदिबद्री, कालीमठ, तुंगनाथ, जागेश्वर, वृद्ध जागेश्वर, चितई गोल्ल, वाराही देवीधुरा इत्यादि में सघन पेड़ विद्यमान हैं। ऊँचे पर्वत शिखरों में मंदिर बनाने के पीछे भी उस इलाके के जीव जंतुओं व वनस्पति को बनाये बचाये रखने का भाव रहता है। धार व डाने में बने मंदिर कई विलुप्त होती प्रजातियों के लिए सुरक्षित इलाके के रूप में उभरते हैं। खेती को अपनी मूल दिनचर्या स्वीकार करते हुए फसलों की रक्षा व बीजों के अंकुरण हेतु भूमिया या क्षेत्रपाल की पूजा आराधना की जाती रही है।