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बिहार विस चुनावों की विश्वसनीयता घटना लोकतंत्र के लिये शुभ नहीं, बहुत याद आ रहे शेषन

राजीव लोचन साह, नैनीताल। बिहार विधानसभा के नतीजों से विपक्ष तो पस्त पड़ा ही है, राजनैतिक प्रेक्षक भी इन परिणामों पर विश्वास नहीं कर पा रहे हैं। इस तरह चुनावों की विश्वसनीयता घटना लोकतंत्र के लिये शुभ नहीं है। यह सही है कि विपक्षी दल मतदाताओं को विश्वास में लेने का कोई कारगर तरीका नहीं खोज सके हैं और केन्द्र तथा एक के बाद एक अनेक राज्यों की सत्ता पर काबिज होने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने अपने संगठन को मोहल्ला और बूथ स्तर तक संगठित किया है, मतदाता सूचियों के अनुसार पन्ना प्रमुख तक बनाये हैं। अन्य दल इस मामले में उसके सामने कहीं नहीं ठहरते। मगर चुनाव जीतने के लिये इतना ही पर्याप्त नहीं है। लम्बे समय से सत्ता में मौजूद दल से ऊब एक ऐसा कारक है, जिसे खत्म करना सम्भव नहीं है। यह कह देना भी कि मतदाताओं ने सरकार द्वारा किये गये विकास पर विश्वास व्यक्त किया है, कदापि सही नहीं लगता। वस्तुतः देश में चुनाव कराने के लिये जिम्मेदार सांवैधानिक संस्था चुनाव आयोग ने हाल के वर्षों में बहुत तेजी से अपनी विश्वसनीयता खोयी है। आयोग एक निष्पक्ष संस्था रहने की बजाय अब सत्ताधारी दल का विस्तार लगने लगा है। पिछले कुछ वर्षों में हुए चुनाव सब राजनैतिक दलों द्वारा समान आधार पर लड़े नहीं दिखाई देते। सत्ताधारी दल द्वारा आदर्श आचार संहिता का धड़ल्ले से उल्लंघन करने पर भी चुनाव आयोग द्वारा उसका संज्ञान नहीं लिया जाता। विभिन्न धर्मों के बीच सद्भाव बिगाड़ कर ध्रुवीकरण का गर्हित प्रयास आयोग द्वारा अनदेखा कर दिया जाता है। बिहार के इस चुनाव में तो मतदान होने-होने तक महिलाओं के बैंक खातों में दस हजार रुपये की धनराशि डाली जा रही थी। अन्य प्रदेशों से सत्ताधारी दल द्वारा अपने खर्चे पर विशेष ट्रेनें चला कर मतदाताओं को बिहार लाने की सूचनाओं पर भी चुनाव आयोग ने कोई ध्यान नहीं दिया। ऐसे में टी.एन.शेषन जैसे मुख्य चुनाव आयुक्त बहुत याद आते हैं, जिनके सामने आचार संहिता का उल्लंघन करने का किसी को साहस नहीं होता था।

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