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उत्तराखण्ड

उत्तराखंड में हरेला पर्व सदियों से मनाये जाने की कृषि परम्परा

अंग्रेजी शासन काल में हरेला पर्व से व्यापक पौधारोपण की परम्परा शुरू हुई
वैदिककाल के अरण्य संस्कृति को पुवर्नजीवित करने की परम्परा है हरेला
चन्द्रेक बिष्ट, नैनीताल।
पर्वतीय क्षेत्र में मनाया जाने वाला हरेला सुख समृद्धि का प्रतीक है वहीं हरेला पर्व सदियों से मनाये जाने की कृषि परम्परा है। 15 वीं शताब्दी में राजाओं के समय भी मनाया जाता था अंग्रेजी शासन काल में हरेला पर्व  से व्यापक पौधारोपण की परम्परा शुरू हुई। इतिहासकार प्रो. अजय रावत के अनुसार हरेला बोने की परम्परा में बीज व भूमि की उर्वरा शक्ति का परीक्षण का तत्व भी निहित है। हरेला बीज को उन्हीं खेतों में बोया जाता था जहां उसके लायक उर्वरा शक्ति हेाती थी। हरेला मौसम चक्र के अनुसार फसलों को बोने का चक्र भी माना जाता है। प्रो. रावत कहते है कि हरेला वर्ष मानने की परम्परा वैदिककाल के अरण्य संस्कृति को पुवर्नजीवित करने की परम्परा हैं पशु, वनस्पति व मानव जीवन के सन्तुलन नहीं बिगड़े इसके लिए यह परम्परा सादियों से चली आ रही है। हरेला पर्व के बाद नक्षत्र वनों का निर्माण करने के साथ ही वनों को पुर्नजीवित करने की परम्परा आज तक चली आ रही है। जायद की फसलें भी हरेला पर्व से बोई जाती है। जायद की फसल को रोग प्रतिरोकधक शक्ति के रूप में माना जाता है। हरेला के दिन बोये गये हरेले के तिनकों कोे सिर में चढ़ा कर लाख हरयाव, लाख बग्वाली, जी रया, जाग रया, बच रया, यो दिन यो मास भैंटन रया आदि सुख समृद्धि की कामना पूरे उत्तराखंड में की जाती है।
हरकाली की पूजा के रूप में है हरेला
नैनीताल।
पर्वतीय क्षेत्र में मनाये जाने वाले हरेला पर्व के बावत कई पुस्तकों में जिक्र किया गया है। डा. दीपा कांडपाल व लता कांडपाल ने अपनी पुस्तक उत्तराखण्ड लोक अनुष्ठान में हरेला पर्व को हरकाली की पूजा के रूप में रेखांकित किया है। इसके अनुसार हरकाली देवी की पूजा कर्क संक्रान्ति के पहले दिन व कर्क संक्रात से 10 दिन पहले धान, जौ, उड़द, मक्का, सरसों के बीच टोकरियों में उगाये जाते है। इनके उगने के बाद टोकरी के बीच में मिट्टी के बने शिव पार्वती, गणेश रिद्धी-सिद्धि सजाये जाते हैं जिनकी पूजा की जाती है। मिट्टी से बनी पार्वती को ही हरकाली, काली व कृषि की देवी कहा गया है। लोक कथाओं के अनुसार हरेला पर्व के दिन शिव व पार्वती का विवाह हुआ था। हरकाली यानी पार्वती को भूमि स्वरूप व शिव को बीज स्वरूप माना जाता है। काश्तकार इस पूजा के बाद विश्वास करते है कि इसके बाद उनकी खेती अच्छी तरह फूलेगी व फलेगी।
हरेला पकवान घर-घर देने की है परम्परा
नैनीताल।
पंच या सप्त अनाजों के बीज उगाकर उनमें शिव-पार्वती व गणेश की प्रतिमा रख कर तैयार की गई टोकरी को डिकार कहा जाता है। इनकी पूजा के बाद रात्रि को जागरण, कीर्तन व भजन करने की परम्परा कुमाऊ के कई स्थानों में है। डिकार पूजने के बाद दूसरे दिन हरेला के पत्तों को काट कर देवताओं को अर्पित करने व हरेले के तिनके परिवार के लोगों के सिर में रखकर सुख समृद्वि की कामना की जाती है। इसके बाद हरेला व पकवान घर-घर बांटने की समृद्ध परम्परा कुमाऊं में देखी जा सकती है। कुमाऊं के कई स्थानों में हरेला के दिन बै बैसी लगाने की भी परम्परा है।
हरेले में होता है कृषि उपकरणों का विवाह
नैनीताल।
हरेला पर्व के दिन पर्वतीय क्षेत्र में भू पूजा के साथ ही कृषि उपकरणों का विवाह कराने की भी परम्परा है। इस दिन खेतों की जुताई करना वर्जित है। पूजा अर्चना के बाद ही कृषि यन्त्रों से खेतों की जुताई की जाती है। हरेला पर्व को जानवरों की पूजा की जाती है। हरेले के तिनको की पुष्टता से यह भी अनुमान लगाया जाता है कि किस खेत में कौन से अनाज के मुताबिक खेती में बीजों को बोया जाता है।
श्रावण माह में मनाये जाने वाला हरेला का विशेष महत्व
नैनीताल।
हरेला एक हिंदू त्यौहार है जो मूल रूप से उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊ क्षेत्र में मनाया जाता है। हरेला पर्व वैसे तो वर्ष में तीन बार आता है। चैत्र माह में प्रथम दिन बोया जाता है तथा नवमी को काटा जाता है। श्रावण माह में सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में बोया जाता है और दस दिन बाद श्रावण के प्रथम दिन काटा जाता है। आश्विन माह में नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है और दशहरा के दिन काटा जाता है। चैत्र व आश्विन माह में बोया जाने वाला हरेला मौसम के बदलाव के सूचक है। चैत्र माह में बोयाध्काटा जाने वाला हरेला गर्मी के आने की सूचना देता है। तो आश्विन माह की नवरात्रि में बोया जाने वाला हरेला सर्दी के आने की सूचना देता है। लेकिन श्रावण माह में मनाये जाने वाला हरेला सामाजिक रूप से अपना विशेष महत्व रखता तथा समूचे कुमाऊ में अति महत्वपूर्ण त्यौहारों में से एक माना जाता है। जिस कारण इस अन्चल में यह त्यौहार अधिक धूमधाम के साथ मनाया जाता है। 

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